• दिल्ली पुलिस ने छापा डाल तीन को पकड़ा लेकिन माधो नहीं पकड़ा जा सका
  • डरु के पक्ष में गवाह बने टिकरी के तीनों ग्रामीणों को विक्रम ने ने मार दिया था 


Dr.Rakesh Dwivedi

(Orai), Bundelkhand

गिरोह के पास कुरौली में  रामेश्वर नाई के घर लूटपाट में जो सामान मिला था उसके समाप्त होने पर औरैया के नौरी गाँव में डकैती डाली गई। धोखे से विक्रम की गोली से कुसुमा घायल हुई थी। उसका इलाज कराने को माधो के अलावा उसका पिता सुन्दर लाल और बड़ा भाई धर्मजीत दिल्ली गए। उन्हें गाँव की ही कुंजीलाल मल्लाह के बेटे कढ़ोरे ने किराए पर कमरा दिला दिया। इनके साथ कुसुमा को देख उसका माथा ठनका। तब उसने डरु को चिट्ठी लिखकर सारी जानकारी दी थी। इसके बाद ही कुसुमा को पकड़ा गया और उसे जेल जाना पड़ा। जेल से छूटकर कुसुमा नाइन माधो के साथ गिरोह में शामिल हो गई थी।


कुसुमा की कहानी 1978 से 1980 के बीच झूलती है। जेल से छूटने के बाद कुसुमा ने बीहड़ में रहने की जिंदगी कुबूल  कर ली। इटावा जेल जाने से पहले डरु और थानाध्यक्ष ने खूब समझाया पर कुसुमा ने किसी की नहीं सुनी। उसने अपनी आँखों में मोहब्बत की पट्टीबाँध रखी थी। फिर तो वह चौखट पर लौटने लायक नहीं बची। बंदूक के साथ वह अपनी कहानियाँ बनाती रही। 24 साल बाद जाकर उसे हथियार रखना ही उचित लगा।

कुसुमा नाइन किशोरावस्था में गाँव के ही जिस माधो मल्लाह के प्रेमजाल में फँस गई थी, उसका पिता सुन्दरलाल और बड़ा भाई धर्मजीत मल्लाह तो  पहले से ही अपराध की दुनिया में थे। सुन्दरलाल के पास उस वक्त यमुना के करमुखा घाट का ठेका था। दिन में वह राहगीरों को नदी पार कराता और रात में डकैतों के गिरोह को नाव पर ढोकर उन्हें किनारे पहुंचाता। कभी-कभी वह विक्रम मल्लाह के साथ डकैती भी डालने चला जाता। 

नौरी में डकैती डालते वक्त जब कुसुमा घायल हुई तो उसे इलाज के लिए सुन्दरलाल, धर्मजीत और माधो दिल्ली ले गए। उस वक्त गाँव के ही कुंजीलाल मल्लाह का लड़का कढ़ोरे श्रीनिवासपुरी में रहकर बिजली का काम करता था। सुन्दरलाल ने उसके पास जाकर रहने की जगह मांगी। कढ़ोरे ने पास में ही किराए पर कमरा दिलाकर एक बिस्किट फैक्ट्री में काम भी दिला दिया।

एक दिन कढ़ोरे उनके कमरे में गया। वहाँ जाकर देखा कि कुसुमा भी इनके साथ में है और पैर में पट्टी बाँध रक्खी है। तब कढ़ोरे ने पूछा, कि तुम्हारे पैर में क्या हो गया है...? कुसुमा बोली, पैर में विषैला फोड़ा हो गया था। घर पर ठीक न हुआ तो पिताजी ने सुन्दर चाचा के साथ इलाज के लिए यहाँ भेज दिया। अब यहाँ आराम मिला है। कुसुमा असली बात छिपा गई। कुसुमा का जवाब सुनकर कढ़ोरे अपने कमरे चला आया। अब उसके मन में उथल-पुथल मचने लगी। 

उसके मन में प्रश्न उभरा कि सुन्दर तो मेरी जाति के हैं। उस पर पिता-पुत्र सब के सब अपराधी प्रवृत्ति के हैं। इनके साथ डरु चाचा ने अपनी जवान बेटी कैसे अकेले भेज दी...? जबकि उसका जाति-बिरादरी का भी कोई संबंध नहीं है। जब मन परेशान हुआ तो उसने एक दिन डरु को चिट्ठी लिखकर पोस्ट कर दी। पत्र में कुसुमा कहाँ है...? किसके साथ है और कहाँ रह रही है...? सब बातों का जिक्र कर दिया। डरु को पत्र मिला। खुद न पढ़ पाने पर दूसरे से पढ़वाया। वही पत्र लेकर थाने गया। कोई मदद न मिली तो पत्नी से 500 रुपए लेकर दिल्ली पहुंचा। कई लोगों से पता पूछते-पूछते वहाँ भी पहुंचा, जहां सुन्दर लाल रह रहा था।

डरु ने मुंह पर साफी लपेटकर उस गली में घुस गया। आगे जाकर देखा कि कुसुमा बाहर नाली के किनारे बैठकर बर्तन धुल रही है। कुसुमा अपने पिता को नहीं पहचान पाई। उसे यहाँ तक आने का अंदाजा भी नहीं था। इसके बाद डरु ने पुलिस को बताया। थाना पुलिस ने धावा बोलकर कुसुमा, सुन्दर लाल और धर्मजीत को हिरासत  में लेकर थाने ले आई। माधो नहीं मिला। वह कमरे के बाहर था।  पुलिस ने कुसुमा से अपने पिता के साथ जाने को कहा लेकिन वह नहीं मानी। उसे नारी निकेतन भेज दिया गया। यह मामला मार्च 1980 का है।

दिल्ली पुलिस की सूचना पर बाद में औरैया पुलिस पहुँची। दोनों आरोपी पहले से कई मामलों में वांछित थे। कुसुमा को फिर समझाया गया। जिद पर अड़ी कुसुमा फिर भी नहीं मानी। तब कुसुमा सहित तीनों को इटावा जेल भेज दिया गया।

अब माधो को भनक लगी। वह सीधे विक्रम के पास पहुंचा। सारी घटना सुनकर विक्रम को भी क्रोध आया। उसने डरु को सबक सिखाने का निश्चय किया। मई 1980 में विक्रम ने गिरोह के साथ जाकर डरु और पत्नी साथ मारपीट कर डकैती डाली। पाल सरैनी के मल्लाहों से कहकर विक्रम ने कुसुमा सहित तीनों की जमानत इटावा से करवा ली। तीनों छूटकर सीधे पहले गोहनी पहुंचे और फिर यहीं से विक्रम के साथ श्रीराम-लालाराम गिरोह में जाकर शामिल हो गए। तब गिरोह में फूलन देवी भी थी।

जिन लोगों ने डरु के पक्ष में गवाही दी थी उन्हें विक्रम और उसके साथियों ने मारना शुरू कर दिया। पहले अशरफी, फिर जगमोहन और अंत में नेकसे मल्लाह को मार दिया गया। इसके बाद भयभीत होकर डरु और सावित्री ने जून 1980 में टिकरी से पलायन करने को मजबूर हुए।

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