• कुसुमा नाइन को बिगाड़ने में माधो की माँ की रही अहम भूमिका 
  • कुसुमा जब घर से भागी तो सारा जेवरात भी अपने साथ बटोर ले गई 

Dr. Rakesh Dwivedi

(Orai), Bundelkhand


टिकरी में कुसुमा नाइन और माधो मल्लाह के घर अगल -बगल थे। दीवार से दीवार मिली हुईं थी। दोनों घरों के बीच रिश्ता भी अच्छा था। एक समय कुसुमा और माधो के पिता एक साथ खेतों से जानवरों के लिए हरियाली लेने जाते थे। कुसुमा माधो के माँ की मुंह लगी हुई थी। कभी-कभी तो वह उसके घर पर ही सो जाती थी। चौथी में कुसुमा जब विदा होकर घर आई तो वह सोने -चाँदी के गहनों से लदी थी। यह देख माधो की माँ के मन में लालच आ गया और वह कुसुमा के गहनों को पाने की चाह में तानाबाना बुनने लगी। 

उस वक्त टिकरी में सरकारी प्राइमरी स्कूल था। कुसुमा यहीं पर कक्षा पांच तक पढ़ी। माधो ने हाईस्कूल तक पढ़ाई कुठौद से की और 11वीं में दाखिला जखा के कॉलेज में लिया पर फिर पढ़ नहीं पाया। मुंह में चेचक के दाग वाला माधो शरीर से काफी हट्टा कट्टा था। दोनों परिवार पड़ोसी थे और संबंध भी बिल्कुल घर जैसे। एक समय ऐसा भी रहा कि डरु नाई और सुन्दरलाल मल्लाह एक साथ खेतों पर जानवरों के लिए हरियाली लेने जाते थे। गाँव वालों ने उन दोनों का नाम हरैरया (हरी फसल चुराने वाले) रख दिया था। दोनों लोग शातिर थे और रात में किसानों के खेत की फसल को ऊपर-ऊपर से काटका अपने जानवरों को खिलाते थे। पूरा गाँव डरु और सुंदर की इस चोरी से त्रस्त था।


कुसुमा माधो से उम्र में छोटी थी। उसका ज्यादा समय माधो की माँ के साथ बीतता। कुछ समय बाद माधो कुसुमा के प्रति  आकर्षित होने लगा। सहमति कुसुमा की ओर से भी मिली। कुसुमा जब खेतों से हरियाली लेने जाती तो माधो भी उसके साथ पीछे-पीछे जाकर मदद करता और बातें होती रहती।

दोनों का ये संबंध जब गाँव वालों की नजरों में आने लगा तो डरु ने कुरौली में केदार उर्फ रूठे के साथ 1977 (रूठे के अनुसार 1976) में शादी कर दी। डरु के मुकाबले रामेश्वर नाई ज्यादा बड़े आदमी थे। शादी में खूब जेवरात चढ़ाये गए। कुसुमा जब चौथी पर पहली बार अपने मायके आई तो वह सोने चाँदी के आभूषणों से सिर से पैर तक लदी हुई थी। यह देख माधो की माँ की नीयत खराब हो गई। उसके दिमाग में कुसुमा के आभूषण ही घूमते रहते। वह खुद चाहने लगी कि कुसुमा को लेकर माधो भाग जाए।


चौथी के बाद कुसुमा का ज्यादा समय माधो की माँ के पास बीतता। कुसुमा की माँ सावित्री ने कई बार टोका भी पर कुसुमा नहीं मानी। माधो की माँ का साथ पाकर कुसुमा का मन अस्थिर रहने लगा। उधर माधो को भी उकसाया जाने लगा कि गौना चलने के पहले ही कुसुमा को भगा ले जाया जाए।  गर्मी के दिनों की बात है। सन 1978 था। माधो ने दीवार में बाँधकर रस्सी लटका दी। आँगन में अकेले सो रही कुसुमा छत के सहारे नीचे आ गई। घर से भागते वक्त वह अपने साथ सारा जेवरात भी ले गई। इसके बाद वह जेवरात कभी ससुराल वालों तक नहीं पहुँच सका। जिन गहनों को लेकर माधो की माँ ललचा गई थी, बाद में उन्हें गोहानी से प्राप्त करने में जुट गई। विक्रम से उसकी नातेदारी थी और कुसुमा को लेकर माधो ने उसी के घर में शरण ली थी। कुछ दिनों बाद डरु किसी प्रकार कुसुमा को वापस लाया पर जेवरात नहीं मिल पाये।

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