“स्वच्छता मिशन” के नाम पर देश की नरेंद्र मोदी सरकार अब तक अरबों रुपए खर्च कर चुकी है। इसमें गांव-गांव और शहर-शहर शौचालय (इज्जत घर) का निर्माण कार्य भी शामिल है। शहर के प्रमुख चौराहों-गलियों की साफ-सफाई पर भी खासा जोर दिया जा रहा है। एक बड़ी रकम केंद्र की मोदी सरकार ने इसके प्रचार-प्रसार में खर्च की है, ये किसी से छिपा नहीं है। फिर वह चाहे किसी को ब्रांड अंबेस्डर बनाना हो या फिर टीवी, अखबार और रेडियो में विज्ञापन देना हो। “स्वच्छता मिशन अभियान” के तहत देश के कई शहर सरकारी कर्मचारियों की तरफ से कागजों में की गई “बाजीगरी” के बाद पूर्णरूप से स्वच्छ भी हो चुके हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि देश के सफाई कर्मचारियों की दयनीय हालत। जी, हां इन सफाई कर्मचारियों की हालत जो कल थी वही आज भी है। सफाई कार्य के दौरान न तो उनको विशेष उपकरण दिए जाते हैं और न ही समय पर उनको वेतन मिलता है। हजारों की संख्या में सफाई कर्मचारी आज भी दिहाड़ी पर कार्य करने के लिए विवश हैं।
कुंभ में सफाई कर्मियों के पांव धोकर उन्हे सम्मानित करने का काम प्रधानमंत्री ने किया। इस नई पहल का स्वागत भी हुआ और निंदा भी। ट्रोल इस कदर हुए कि सोशल मीडिया में यूजर्स ने ये तक कह दिया कि “सफाई कर्मचारी तो आपके आवास पर भी होंगे तो यहां ये सब करने की क्या आवश्यकता ?” ये सेवा भाव तो आप वहां भी दिखा सकते थे, कहीं ये चुनाव में वोट बटोरने का स्टंट तो नहीं है ?
Mohit Chopra
सिर्फ टॉयलेट बनाने से कुछ नहीं होगा
“स्वच्छ भारत” का निर्माण सिर्फ टायलेट बनाने से नहीं होगा, जमीनी स्तर पर अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। ये सच है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पहले किसी ने भी सफाई और स्वच्छता के बारे में गंभीरता से नहीं सोचा। लेकिन नरेंद्र मोदी ने ये भी कर दिखाया। देश के एक बड़े वर्ग ने इसकी तारीफ भी की। “स्वच्छ भारत आंदोलन” की शुरुआत के बाद से देश में खुले में शौच, सार्वजनिक स्थानों पर सफाई, स्कूलों में टायलेट का निर्माण पर न सिर्फ खासा जोर दिया गया बल्कि जमीनीस्तर पर युद्धस्तरीय काम भी किया गया।
देश 9.2 करोड़ इज्जत घर का हो चुका है निर्माण
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक स्वच्छ भारत अभियान के तहत 9.2 करोड़ शौचायलों (इज्जत घर) का निर्माण किया जा चुका है। देश की जनता इसका लाभ भी उठा रही है। कई गांवों में अभी भी निर्माण कार्य जारी है। सफाई कर्मचारियों की हालत बेहद दयनीय है। तस्दीक कुंभ में सम्मान प्राप्त करने वाले स्वच्छग्रहियों और सफाईकर्मियों ने तुरंत बाद स्वयं ही कर दी। जिनका कहना था कि, “सम्मान ही काफी नहीं है, स्थायी रोजगार भी चाहिए। हमें यह काम ही हमेशा करने दिया जाए”। प्रधानमंत्री से यही उम्मीद और मांग है।
सफाई कर्मचारियों के पास नहीं है अत्याधुनित उपकरण
बिना किसी सुरक्षा उपकरणों के बाद भी हजारों की संख्या में दिहाड़ी सफाई कर्मचारी जोखिम लेने को विवश होते रहते है। सीवर सफाई के दौरान होने वाली मौतों का आंकड़ा सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद अवश्य सामने आए हैं। हालांकि ये भी अधूरा ही है। राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग (एनसीएसके) के मुताबिक पिछले 25 साल में सेप्टिक टैंकों और सीवरों की पारंपरिक तरीके से सफाई के दौरान 634 सफाई कर्मचारियों की जान जा चुकी है। यह आंकड़ा बदल सकता है क्योंकि आयोग राज्यों से ब्योरा इकट्ठा करने और जानकारी जुटाने की प्रक्रिया में है। मतलब राज्यों की पूरी जानकारी इनमें शामिल नहीं है।
सफाई कर्मचारियों को नहीं मिलता है वेतन
स्वच्छ भारत अभियान की आशा भरी तस्वीर के अलावा एक निराशाजनक पहलू ये भी है कि जिनके दम पर आपके मोहल्ले और गलियां चमकती हैं, जो शहर साफ रखने के लिए बदबूदार सीवर में गले तक उतरने में भी नहीं हिचकते। निगम के ऐसे सफाई कर्मचारियों को कई-कई महीने वेतन तक नसीब नहीं होता है। निगम में सक्रिय सूदखोरों से कर्ज लेकर किसी तरह से वे परिवार की जीविका चलाने को मजबूर रहते हैं।
सफाई कार्य के दौरान पांच दिन में एक कर्मचारी की मौत
सफाई कर्मचारियों को बिना किसी उपकरण के ही चेंबर या फिर पुराने नालों में सफाई के लिए उतार दिया जाता है। उनके पास किसी तरह के उपकरण नहीं होते हैं। उपकरण की छोड़िए हाथों में पहनने के लिए दस्ताने तक नहीं दिए जाते हैं। इंटर-मिनिस्टीरियल टास्क फोर्स की तरफ देश में मौजूद मैनुअल स्कैवेंजर की संख्या का आंकड़ा जारी किया गया है। जिसके मुताबिक देश के 12 राज्यों में 53, 236 लोग मैला ढोने के काम में लगे हुए हैं। उनके लिए किए गए कामों को आज तक किसी भी सरकार ने ना तो बताया ना ही किसी ने पूछा । संसद की तरफ से गठित नेशनल कमीशन फॉर सफाई कर्मचारी के मुताबिक हर पांच दिन में सफाई कार्य के दौरान एक कर्मचारी की मौत हो जाती है। देश में करीब एक लाख साठ हजार के करीब महिलाएं भी मैला ढोने के कार्य करती हैं। सरकार की तरफ से आज तक उनके लिए भी कुछ नहीं किया गया है।
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